RIC रणनीतिक साझेदारी पर सवाल: रूस, भारत और चीन का गठबंधन एक बार फिर सुर्खियों में है। तीनों देश अमेरिका के व्यापार युद्ध का सामना करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि अतीत में यह गठबंधन दरारों से गुज़रा है। भारत-चीन सीमा विवाद सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है, वहीं अमेरिका के प्रतिबंधों से रूस भी दबाव में है।
1990 के दशक में अमेरिका के वैश्विक प्रभाव को चुनौती देने के लिए शुरू हुआ रूस-भारत-चीन (RIC) गठबंधन एक बार फिर चर्चा में है। बदलते भू-राजनीतिक हालात और अमेरिका की ओर से बढ़ते टैरिफ ने इस त्रिगुट को मजबूरी में करीब ला दिया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक व्यापार नीति, रूस पर जारी प्रतिबंध और चीन के साथ अमेरिका की रणनीतिक प्रतिस्पर्धा ने इस गठबंधन को फिर से प्रासंगिक बना दिया है।
क्यों चर्चा में आया RIC गठबंधन?
अमेरिका ने हाल ही में भारत पर 50% तक का आयात शुल्क लगा दिया है, जिसमें रूस से तेल खरीदने पर अतिरिक्त टैक्स भी शामिल है। इससे भारत पर आर्थिक दबाव बढ़ गया है। दूसरी तरफ रूस पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों से जूझ रहा है और चीन लंबे समय से अमेरिका के साथ तकनीकी और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है। यही हालात तीनों देशों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं।
क्रेमलिन लगातार RIC की त्रिपक्षीय बैठक पर जोर दे रहा है। इस हफ्ते तियानजिन में होने वाले शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में भी इस गठबंधन की झलक देखने को मिलेगी। अगर ये देश एक मंच पर आते हैं, तो दुनिया को संदेश जाएगा कि अमेरिका के दबाव में बड़ी शक्तियाँ मिलकर जवाब दे सकती हैं।
अतीत की दरारें अब भी मौजूद
हालांकि RIC का विचार नया नहीं है। 1990 के दशक में रूस के प्रधानमंत्री येवगेनी प्रिमाकोव ने इसे अमेरिका के खिलाफ एक संतुलन के रूप में पेश किया था। कागजों पर यह गठबंधन तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और विशाल जनसंख्या वाले देशों का मजबूत गुट था। लेकिन वास्तविकता में भारत और चीन के बीच गहरे अविश्वास ने इसे कमजोर कर दिया।
सीमा विवाद इसकी सबसे बड़ी बाधा है। 1962 के युद्ध से लेकर 2020 में गलवान घाटी की हिंसक झड़प तक, दोनों देशों के रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं। भारत ने चीन पर भरोसा कम कर दिया है और तकनीकी वीजा से लेकर आयात तक कई मोर्चों पर रोक लगाई है।
मौजूदा हालात और बदलती रणनीति
ट्रंप की ओर से लगाए गए टैक्स ने भारत की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। हाल तक अमेरिका को एक अहम सहयोगी मानने वाला भारत अब उसके खिलाफ कदम उठाने पर मजबूर हो रहा है। चीन, जो पहले अमेरिका का मुख्य निशाना था, फिलहाल थोड़ी राहत में है लेकिन उसकी रणनीतिक प्रतिस्पर्धा जारी है। वहीं रूस प्रतिबंधों और यूक्रेन युद्ध की वजह से अलग-थलग पड़ गया है और उसे नए साझेदारों की सख्त जरूरत है।
तीनों देशों के लिए यह गठबंधन एक अवसर जरूर है, लेकिन यह भरोसे से ज्यादा मजबूरी पर आधारित है। हाल ही में भारत और चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए बातचीत पर सहमत हुए और वीजा प्रतिबंधों में भी कुछ नरमी आई। लेकिन यह रिश्तों की स्थायी सुधार का संकेत नहीं है।
भारत की दुविधा: भरोसा या मजबूरी?
नई दिल्ली के लिए बीजिंग पर भरोसा करना आसान नहीं है। चीन की दक्षिण चीन सागर और ताइवान में सैन्य गतिविधियां भारत के लिए चिंता का विषय हैं। इसके अलावा पाकिस्तान के साथ चीन की नजदीकी भी भारत को असहज करती है। हाल की झड़पों में पाकिस्तान ने चीनी तकनीक और लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल कर भारत को चुनौती दी थी। इससे भारत की सुरक्षा चिंताएं और बढ़ गई हैं।
आर्थिक समीकरण भी आसान नहीं
सिर्फ सुरक्षा ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी यह साझेदारी भारत के लिए चुनौतीपूर्ण है। भारत अमेरिकी तकनीक, पूंजी और सप्लाई चेन पर निर्भर है। अमेरिका भारतीय सामानों का सबसे बड़ा खरीदार है। 2024 में अमेरिका ने 77.5 बिलियन डॉलर का भारतीय सामान खरीदा, जबकि चीन और रूस का आयात इससे बहुत कम है। ऐसे में भारत पूरी तरह से अमेरिका से दूरी नहीं बना सकता।
इसके विपरीत रूस और चीन का रिश्ता कहीं ज्यादा मजबूत है। 2014 में क्रीमिया संकट के बाद पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बाद रूस और चीन का व्यापार लगातार बढ़ा है। पिछले साल यह 200 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा हो गया। वित्तीय लेन-देन से लेकर ऊर्जा सहयोग तक दोनों देश अब गहराई से जुड़े हुए हैं। The Diplomat
क्या भारत जूनियर पार्टनर बनेगा?
अगर भारत RIC में शामिल होता है, तो खतरा है कि वह जूनियर पार्टनर बनकर रह जाएगा। रूस और चीन का आपसी रिश्ता पहले से मजबूत है, ऐसे में भारत के पास सीमित विकल्प होंगे। यही वजह है कि नई दिल्ली इस गठबंधन में शामिल होने को लेकर सावधानी बरत रही है।
नाजुक साझेदारी का भविष्य
फिलहाल तीनों देशों को अमेरिकी दबाव ने करीब ला दिया है। रूस और चीन इसे मजबूत साझेदारी के रूप में पेश कर रहे हैं। बीजिंग का कहना है कि यह गठबंधन शांति और स्थिरता लाने में मदद करेगा। लेकिन असलियत यह है कि इन देशों को जोड़े रखने वाला कारक जरूरत है, भरोसा नहीं। तियानजिन की बैठक गर्मजोशी दिखाएगी, लेकिन यह संबंध प्रतीकात्मक होंगे, न कि स्थायी।
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